सच की कलम को कुचलने की साज़िश में पचमढ़ी के पत्रकार उमाकांत झा की आवाज़ को दबाने की कोशिश

सूरज राजपूत की कलम से सच की कलम को कुचलने की साज़िश पचमढ़ी में पत्रकार उमाकांत झा की आवाज़ को दबाने की कोशिश —बोलता शब्द, संपादक की कलम से पचमढ़ी, मध्यप्रदेश की शान, सतपुड़ा की रानी, एक ऐसा हिल स्टेशन जो प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ अब अवैध निर्माण और सत्ता की मिलीभगत का प्रतीक बनता जा रहा है। वर्ष 2002 से माननीय उच्च न्यायालय द्वारा लगाए गए स्पष्ट स्थगन आदेश (स्टे) के बावजूद, पचमढ़ी में धड़ल्ले से अवैध निर्माण जारी हैं। इन दो दशकों में शासन और प्रशासन की भूमिका मात्र एक मूक दर्शक की रही है—एक ऐसी चुप्पी, जो अब साज़िश का रूप ले चुकी है। लेकिन जब पूरी व्यवस्था ने आंखें मूंद लीं, तब एक युवा पत्रकार, उमाकांत झा, ने अपनी कलम को आवाज़ बनाई। उन्होंने निडर होकर उन रसूखदारों की पोल खोली, जो नियम-कानून की धज्जियाँ उड़ाकर, न्यायालय के आदेशों को ठेंगा दिखाकर निर्माण करवा रहे थे। इस रिपोर्टिंग के बाद, जैसे ही कुछ नव निर्माणों पर औपचारिक कार्रवाई हुई, सच की यह आवाज़ रसूखदारों को चुभ गई। बदले की आग में जलते प्रभावशाली लोगों ने अब पत्रकार को ही निशाना बनाना शुरू कर दिया। पचमढ़ी को बंद करवाया गया, साजिशें रची गईं, ताकि उमाकांत झा की आवाज़ को दबाया जा सके। ये सिर्फ़ एक पत्रकार पर हमला नहीं, ये अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला है, संविधान पर तमाचा है। अब सवाल जनता से, सरकार से और न्यायपालिका से है—<br>क्या पत्रकारिता का गला घोंटने की खुली छूट है? क्यों वर्षों से अवैध निर्माणों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई? जब एक पत्रकार न्याय की बात करता है, तो उसे ही गुनहगार क्यों बना दिया जाता है? पचमढ़ी को बचाना है, तो अब चुप नहीं रह सकते। शासन और प्रशासन को चाहिए कि वह तुरंत इस मसले की उच्चस्तरीय जांच करवाएं, न्यायालय के आदेशों का सख्ती से पालन कराएं और पत्रकार उमाकांत झा को पूर्ण सुरक्षा और न्याय दिलाएं। सच बोलना अगर गुनाह है, तो उमाकांत झा उस सच्चाई के सबसे बड़े सिपाही हैं। "बोलता शब्द" उनकी आवाज़ के साथ खड़ा है—न्याय के लिए, सच्चाई के लिए।