जीवन की यात्रा में हर मनुष्य कभी न कभी ऐसे पलों से गुजरता है जब क्रोध और असमंजस की स्थिति उसके अंदर एक बड़ा तूफान सा पैदा कर देते हैं. लेकिन इन परिस्थितियों में भी जो व्यक्ति शांत और संतुलिन बनाकर रखता है, वहीं सुखी व समृद्ध रहता है. श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने यही संदेश दिया है कि कर्म करो और फल की चिंता मत करो. ऐसे में भगवद्गीता उन लोगों के लिए भी बड़ी प्रेरणा बनती है जो अपने क्रोध के कारण परेशान रहते और अकसर उनका क्रोध रिश्तों को बिगाड़ देता है.

लेकिन गीता में भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा कई ऐसे सूत्र दिये गये हैं जो कि व्यक्ति को क्रोध के समय ध्यान में रखने पर उसके लिए बहुत फायदेमंद साबित हो सकता है.

मन को करें नियंत्रित
मनुष्य का मन उसका सबसे बड़ा मित्र बन सकता है बस उसे साथ लेकर चलने की देरी है. लेकिन यही मन अनियंत्रित हो जाए तो यह उसका सबसे बड़ा शत्रु भी बन सकता है. यही कारण है कि आत्मसंयम और ध्यान का अभ्यास आवश्यक है. ध्यान से मन की शुद्धि होती है और विचारों में स्पष्टता आती है. साथ ही हम सही दिशा में निर्णय ले पाते हैं. शांत मन परिस्थितियों को सही तरीके से देख पाता है.

क्रोध लेकर आता है विनाश
श्रीकृष्ण के अनुसार “क्रोध से है और बुद्धि के नष्ट हो जाने पर व्यक्ति का पतन हो जाता है”. यह भीतर से धीरे-धीरे मनुष्य को कमजोर करता है. इतना ही नहीं क्रोध पर नियंत्रण केवल एक गुण नहीं बल्कि स्वयं की रक्षा का माध्यम है. जब हम संयम और विवेक से प्रतिक्रिया देना सीखते हैं तभी हमारा मन सच्ची शक्ति से भरता है.

सागर जैसी स्थिरता
गीता में एक सुंदर दृष्टांत दिया गया है जैसे नदियां निरंतर समुद्र में समा जाती हैं, फिर भी समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता वैसे ही जो व्यक्ति सुख-दुख, लाभ-हानि जैसे अनुभवों के बीच भी अडिग और शांत रहता है वही सच्ची शांति को प्राप्त करता है. इस उपदेश से हमें यह सीख मिलती है कि जीवन की कठिनाइयों में भी अपनी स्थिरता बनाए रखना ही आत्मसंयम का सार है.